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सती की कथा

9 मिनट पढ़ने मेंपौराणिक
सती की कथा

प्रजापति दक्ष की पुत्री सती

प्राचीन काल में, प्रजापति दक्ष की सत्ताईस कन्याएँ थीं, जिन्हें उन्होंने चंद्रमा को समर्पित कर दिया था। इन कन्याओं में से सबसे छोटी और सबसे सुंदर कन्या का नाम सती था। सती बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति की थीं और उन्होंने भगवान शिव की आराधना करना शुरू कर दिया था।

एक बार, जब सती अपने पिता दक्ष के महल में बैठी थीं, तभी देवर्षि नारद वहाँ पधारे। नारद जी ने उन्हें देखकर भविष्यवाणी की कि वे भगवान शिव की अर्धांगिनी बनेंगी। सती के हृदय में शिव के प्रति प्रेम और भी प्रगाढ़ हो गया।

सती का शिव से विवाह

सती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या आरंभ कर दी। वर्षों तक कठिन तप करने के बाद, भगवान शिव उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने सती को वरदान माँगने को कहा। सती ने शिव से विवाह करने का वरदान माँगा।

शिव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और सती के पिता दक्ष के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा। दक्ष, जो स्वभाव से अभिमानी थे, शिव के विचित्र रूप और रहन-सहन से प्रसन्न नहीं थे। वे शिव को 'श्मशान वासी' और 'भूत-प्रेतों के साथी' मानते थे। लेकिन मातृदेवी मेनका और अन्य देवताओं के समझाने पर, उन्होंने अंततः सती का विवाह शिव से करने की सहमति दे दी।

इस प्रकार, भव्य विवाह समारोह में सती का विवाह भगवान शिव से हुआ, और वे कैलाश पर्वत पर रहने लगीं। सती अपने पति के साथ परम सुखी थीं, लेकिन दक्ष के मन में अपनी पुत्री के विवाह को लेकर असंतोष बना रहा।

दक्ष का यज्ञ और शिव का अपमान

कुछ समय बाद, प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसे "दक्ष-यज्ञ" के नाम से जाना जाता है। उन्होंने सभी देवताओं, ऋषियों और अपने परिवार के सदस्यों को आमंत्रित किया, लेकिन जानबूझकर भगवान शिव और सती को निमंत्रण नहीं भेजा।

जब सती ने अपने पिता के यज्ञ के बारे में सुना, तो वे अत्यधिक उत्साहित हुईं और अपने माता-पिता से मिलने की इच्छा प्रकट की। शिव ने उन्हें समझाया कि बिना निमंत्रण के जाना उचित नहीं है, और यह भी संकेत दिया कि दक्ष का आचरण अपमानजनक है। परंतु सती अपने निश्चय पर अडिग रहीं।

"मैं उनकी पुत्री हूँ, मुझे निमंत्रण की आवश्यकता नहीं है," सती ने कहा। शिव ने अंततः उन्हें जाने की अनुमति दे दी, लेकिन अपने गण नंदी को उनके साथ सुरक्षा के लिए भेजा।

दक्ष यज्ञ में सती का अपमान

सती जब अपने पिता के यज्ञशाला में पहुँचीं, तो उन्हें अपने पिता से कोई आदर-सत्कार नहीं मिला। दक्ष ने न केवल उनकी उपेक्षा की, बल्कि सभा के बीच में भगवान शिव के बारे में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया।

दक्ष ने कहा, "मेरी पुत्री ने एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया है जो श्मशान में रहता है, भूत-प्रेतों के साथ रहता है, और जिसका कोई कुल या वंश नहीं है। वह मेरे यज्ञ में स्वागत योग्य नहीं है।"

यह सुनकर सती का हृदय आहत हुआ। उन्होंने अपने पिता से कहा, "आप एक महान प्रजापति हो सकते हैं, लेकिन शिव तो महादेव हैं, सृष्टि के स्वामी हैं। उनका अपमान करके आप अपना ही अपमान कर रहे हैं।"

परंतु दक्ष ने उनकी बात नहीं सुनी और शिव के बारे में और भी अपमानजनक बातें कहीं। यह सुनकर सती क्रोध और दुःख से भर गईं।

सती का अग्नि-समर्पण

अपने पति का इतना अपमान सहन न कर पाने के कारण, सती ने सभा के बीच में खड़े होकर घोषणा की, "मुझे इस शरीर पर लज्जा आती है, जो आपके वंश से आया है। मैं इस शरीर को त्याग देती हूँ, और पुनर्जन्म में ऐसे पिता को प्राप्त करूँगी जो मेरे पति का सम्मान करेगा।"

इतना कहकर सती ने अपनी योग शक्ति से अपने भीतर योगाग्नि उत्पन्न की और उसमें अपने शरीर का त्याग कर दिया। यह देखकर पूरी सभा स्तब्ध रह गई। सती के इस अद्भुत त्याग ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।

शिव का प्रकोप

जब भगवान शिव को सती के आत्म-बलिदान का समाचार मिला, तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने जटाओं से एक लट उखाड़कर पृथ्वी पर पटका, जिससे वीरभद्र नामक एक शक्तिशाली योद्धा उत्पन्न हुआ। शिव ने वीरभद्र को दक्ष यज्ञ का विनाश करने का आदेश दिया।

वीरभद्र ने अपनी विशाल सेना के साथ दक्ष के यज्ञशाला पर आक्रमण किया और वहाँ उपस्थित सभी देवताओं को परास्त कर दिया। उन्होंने दक्ष का सिर काट दिया और यज्ञ को नष्ट कर दिया।

बाद में, अन्य देवताओं के अनुरोध पर, शिव ने दक्ष को जीवित किया, लेकिन उसके मानव सिर के स्थान पर एक बकरे का सिर लगा दिया। दक्ष ने अपनी गलती स्वीकार की और शिव से क्षमा माँगी।

सती के शरीर के अंगों का पृथ्वी पर गिरना

पत्नी के निर्जीव शरीर को लेकर शिव पूरे ब्रह्मांड में भटकने लगे। उनका विलाप और क्रोध सृष्टि के लिए खतरा बन गया था। तब विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए, जो भारत के विभिन्न स्थानों पर गिरे। जहाँ-जहाँ उनके अंग गिरे, वे स्थान "शक्ति पीठ" के रूप में प्रसिद्ध हुए, जहाँ माँ शक्ति की उपासना की जाती है।

सती का पार्वती के रूप में पुनर्जन्म

सती के अंतिम शब्दों के अनुसार, उन्होंने हिमालय राज और मेना की पुत्री के रूप में पुनर्जन्म लिया, और उनका नाम पार्वती रखा गया। पार्वती ने भी शिव को पति के रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की, और अंततः उनका विवाह शिव से हुआ। इस बार, उनके पिता हिमालय राज ने शिव का पूरा सम्मान किया और खुशी-खुशी अपनी पुत्री का विवाह उनसे किया।

इस प्रकार, सती के आत्म-बलिदान और पार्वती के रूप में पुनर्जन्म की कथा हिंदू धर्म की एक महत्वपूर्ण कथा है, जो पति-पत्नी के प्रेम, त्याग और भक्ति का प्रतीक है।

कथा का महत्व और शिक्षा

सती की कथा से हमें कई महत्वपूर्ण शिक्षाएँ मिलती हैं। सबसे पहले, यह कथा हमें स्वाभिमान और आत्मसम्मान का महत्व सिखाती है। सती ने अपने पति के अपमान को सहन नहीं किया और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहीं।

यह कथा हमें अहंकार के परिणामों के बारे में भी सिखाती है। दक्ष के अहंकार ने न केवल उनकी पुत्री का जीवन लिया, बल्कि उन्हें शिव के प्रकोप का भी सामना करना पड़ा।

सती और शिव के प्रेम की कथा जन्म-जन्मांतर के प्रेम और समर्पण का प्रतीक है। यह दर्शाती है कि सच्चा प्रेम मृत्यु के बाद भी बना रहता है और नए जन्म में भी एक ही आत्मा को खोजता है।

अंत में, शक्ति पीठों की स्थापना हमें यह सिखाती है कि हिंदू धर्म में स्त्री शक्ति का कितना महत्व है। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे, वहाँ आज भी माँ शक्ति की पूजा होती है, जो स्त्री शक्ति के प्रति श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है।