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त्याग और प्रकोप|पढ़ने का समय: 10 मिनट

दक्ष यज्ञ: सती का त्याग और शिव का तांडव

यह कहानी राजा दक्ष द्वारा आयोजित एक विशाल यज्ञ की है, जिसमें उनकी पुत्री सती ने अपने पति शिव के अपमान के कारण अग्नि में प्रवेश किया, और जिसके परिणामस्वरूप शिव के क्रोध से सम्पूर्ण ब्रह्मांड कांप उठा।

दक्ष यज्ञ

वीरभद्र द्वारा दक्ष यज्ञ का विनाश

प्रारंभिक अपमान

दक्ष प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक थे। उनकी अनेक पुत्रियां थीं, जिनमें से सबसे प्रिय पुत्री थीं सती। सती ने अपनी कठोर तपस्या से शिव को प्रसन्न किया और उनसे विवाह किया। लेकिन दक्ष को शिव का व्यवहार, उनका श्मशान में रहना, भस्म लगाना और अलग-थलग रहना पसंद नहीं था। इसलिए वे अपनी पुत्री के विवाह से खुश नहीं थे।

एक बार दक्ष ब्रह्मा के दरबार में आए। सभी देवता और ऋषि-मुनि ब्रह्मा का सम्मान करते हुए खड़े हो गए, लेकिन शिव, जो स्वयं ब्रह्मा के समकक्ष थे, अपने आसन पर बैठे रहे। इस पर दक्ष बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शिव का खुलेआम अपमान किया।

शिव, जो निर्विकार और शांत स्वभाव के थे, इस अपमान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और वहां से चले गए। लेकिन इस घटना ने दक्ष के मन में शिव के प्रति और अधिक द्वेष पैदा कर दिया।

दक्ष यज्ञ का आयोजन

कुछ समय बाद, दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसे "बृहस्पति सव" कहा गया। इस यज्ञ में स्वर्ग और पृथ्वी के सभी देवता, ऋषि-मुनि, गंधर्व, किन्नर और अन्य जीवों को आमंत्रित किया गया, लेकिन दक्ष ने जानबूझकर शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया।

जब सती ने आकाश में यज्ञ की तैयारियों की गतिविधि देखी, तो उन्होंने शिव से इसके बारे में पूछा। शिव ने उन्हें बताया कि यह उनके पिता दक्ष का यज्ञ है और उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें आमंत्रित नहीं किया गया है।

सती का निर्णय

सती इस बात से बहुत दुखी हुईं कि उन्हें और उनके पति को यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया गया। उन्होंने अपने पति शिव से यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी, भले ही उन्हें आमंत्रित न किया गया हो। शिव ने उन्हें समझाया कि बिना आमंत्रण के जाना उचित नहीं है और यह अपमानजनक हो सकता है। लेकिन सती अपने निर्णय पर अडिग रहीं और कहा कि वे अपने पिता के घर जाना चाहती हैं, चाहे वे उन्हें बुलाएं या न बुलाएं।

यज्ञ में सती का अपमान

अंततः शिव ने सती को जाने की अनुमति दे दी, लेकिन उनके साथ अपने कुछ गणों को भेजा ताकि वे उनकी सुरक्षा कर सकें। जब सती यज्ञशाला में पहुंचीं, तो उनके पिता दक्ष ने उनका स्वागत नहीं किया और न ही उन्हें आशीर्वाद दिया।

यज्ञ में उपस्थित सभी लोगों ने सती का सम्मान किया, सिवाय उनके पिता के। सती ने देखा कि यज्ञ में अग्नि की वेदी के चारों ओर सभी देवताओं के लिए आसन थे, लेकिन शिव के लिए कोई आसन नहीं था। इससे भी अधिक अपमानजनक बात यह थी कि यज्ञ में शिव के लिए कोई आहुति भी नहीं थी।

जब सती ने इस बारे में अपने पिता से पूछा, तो दक्ष ने सभा के बीच में खुलेआम शिव का अपमान किया। उन्होंने शिव को श्मशान में रहने वाला, भूत-प्रेतों के साथ रहने वाला और अपवित्र बताया। उन्होंने यह भी कहा कि शिव देवताओं के समान सम्मान के योग्य नहीं हैं।

सती का आत्मदाह

अपने पति के इस अपमान को सुनकर सती क्रोध और दुःख से भर गईं। उन्होंने अपने पिता से कहा, "यदि शिव अपवित्र हैं, तो मैं भी अपवित्र हूं, क्योंकि मैं उनकी पत्नी हूं। आपने न केवल मेरे पति का अपमान किया है, बल्कि मेरा भी अपमान किया है।"

सती ने फिर सभा के सामने घोषणा की, "मैं इस शरीर को त्यागती हूं जो दक्ष से उत्पन्न हुआ है। मैं फिर से जन्म लूंगी और शिव को अपने पति के रूप में पाऊंगी, लेकिन इस बार ऐसे पिता से जन्म लूंगी जो मेरे पति का सम्मान करेगा।"

इस घोषणा के बाद, सती ने अपनी योग शक्ति से अपने शरीर में अग्नि उत्पन्न की और उस अग्नि में समा गईं। यह देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि स्तब्ध रह गए। सती के आत्मबलिदान ने सभी को हिला कर रख दिया।

शिव का प्रकोप और वीरभद्र की उत्पत्ति

जब शिव को सती के आत्मदाह का समाचार मिला, तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। उनके क्रोध से पूरी सृष्टि कांप उठी। शिव ने अपने जटाओं को जमीन पर पटका और उनमें से वीरभद्र नामक एक शक्तिशाली योद्धा उत्पन्न हुआ। शिव ने वीरभद्र को आदेश दिया कि वह दक्ष के यज्ञ को नष्ट करे और दक्ष को दंडित करे।

वीरभद्र और शिव के अन्य गण यज्ञशाला में पहुंचे और उन्होंने भयानक विनाश मचाया। उन्होंने यज्ञ को नष्ट कर दिया, सभी देवताओं को पराजित किया और दक्ष का सिर काट दिया। शिव के इस क्रोध ने पूरे ब्रह्मांड को भयभीत कर दिया।

शिव का तांडव और सती के शरीर का विच्छेदन

शिव स्वयं यज्ञशाला में आए और सती के निर्जीव शरीर को उठाकर अपने कंधे पर रखा। फिर वे तांडव नृत्य करने लगे। उनका यह तांडव नृत्य विनाश का कारण बन रहा था और सारी सृष्टि खतरे में थी।

भगवान विष्णु को यह अवस्था देखकर चिंता हुई। उन्होंने समझा कि अगर शिव का क्रोध शांत नहीं हुआ, तो पूरी सृष्टि नष्ट हो जाएगी। इसलिए, विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर दिए।

जैसे-जैसे सती के शरीर के टुकड़े पृथ्वी पर गिरते गए, वैसे-वैसे शिव का तांडव शांत होता गया। इन 51 टुकड़ों जहां-जहां गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए। ये स्थान आज भी हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र माने जाते हैं।

दक्ष का पुनर्जीवन और शिव की क्षमा

अंततः, ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने शिव से प्रार्थना की कि वे अपना क्रोध शांत करें। शिव का क्रोध कुछ शांत हुआ और उन्होंने दक्ष को जीवनदान दिया। चूंकि दक्ष का सिर काट दिया गया था, इसलिए उन्हें एक बकरे का सिर प्रदान किया गया।

दक्ष को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने शिव से क्षमा याचना की। शिव ने उन्हें क्षमा कर दिया और दक्ष ने अपने यज्ञ को फिर से आरंभ किया, इस बार शिव के सम्मान में।

"दक्ष यज्ञ की कहानी हमें सिखाती है कि अहंकार और द्वेष विनाश का कारण बनते हैं। यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि हमें सभी का सम्मान करना चाहिए, विशेष रूप से उनका जो हमारे प्रियजनों के प्रिय हैं।"

कहानी का सार

दक्ष यज्ञ की कहानी अहंकार, द्वेष और उनके विनाशकारी परिणामों का एक शक्तिशाली प्रतीक है। यह कहानी हमें सिखाती है कि अहंकार हमें अंधा कर देता है और हम अपने प्रियजनों को भी चोट पहुंचा सकते हैं।

सती का त्याग हमें सिखाता है कि सच्चा प्रेम और भक्ति किसी भी बाधा से ऊपर होते हैं। सती ने अपने पति के सम्मान के लिए अपने प्राणों का त्याग कर दिया, जो उनकी अटूट भक्ति और प्रेम का प्रतीक है।

शिव का क्रोध हमें दिखाता है कि प्रेम की शक्ति कितनी महान होती है। शिव, जो आमतौर पर शांत और ध्यानमग्न रहते हैं, अपनी प्रिय पत्नी के खोने पर इतने क्रोधित हुए कि पूरा ब्रह्मांड उनके क्रोध से कांप उठा।

शक्तिपीठ का महत्व

सती के शरीर के 51 टुकड़ों के गिरने के स्थान पर 51 शक्तिपीठ स्थापित हुए। ये स्थान भारत, बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान में फैले हुए हैं और हिंदू धर्म में अत्यंत पवित्र माने जाते हैं।

प्रत्येक शक्तिपीठ में देवी के शरीर का कोई न कोई अंग या आभूषण माना जाता है। जैसे, कामाख्या मंदिर (असम) में देवी की योनि गिरी थी, जबकि काली मंदिर (कोलकाता) में उनके दाहिने पैर की उंगलियां गिरी थीं।

प्रत्येक शक्तिपीठ में शिव भी भैरव के रूप में विराजमान हैं, जो देवी की रक्षा करते हैं। शक्तिपीठों की यात्रा को हिंदू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है और माना जाता है कि इससे मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है।