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विवाह कथा|पढ़ने का समय: 12 मिनट

शिव पार्वती विवाह: दिव्य प्रेम की पुनःप्राप्ति

शिव और पार्वती के विवाह की कथा भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में सबसे प्रियतम और महत्वपूर्ण कथाओं में से एक है। यह कथा सती के पुनर्जन्म से लेकर पार्वती के रूप में शिव के साथ उनके मिलन तक की दिव्य यात्रा का वर्णन करती है।

शिव पार्वती विवाह

भगवान शिव और देवी पार्वती का विवाह समारोह

पृष्ठभूमि: सती का पुनर्जन्म

शिव पार्वती विवाह की कथा दक्ष यज्ञ की दुखद घटना से शुरू होती है, जहां शिव की प्रथम पत्नी सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा शिव का अपमान न सह पाने के कारण अग्नि में आत्मदाह कर लिया था। सती के आत्मबलिदान से व्यथित शिव ने वीरभद्र को उत्पन्न किया, जिसने दक्ष यज्ञ का विनाश कर दिया।

इस घटना के बाद, शिव पूर्ण वैराग्य में चले गए और हिमालय की गुफाओं में ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने सांसारिक सुखों का त्याग कर दिया और अपने आप को योग साधना में लीन कर लिया।

इधर, सती ने हिमालय राजा और उनकी पत्नी मेना के घर पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया। जन्म से ही, पार्वती को शिव से अद्वितीय लगाव था, जैसे कि उनके पिछले जन्म के संबंध उन्हें आकर्षित कर रहे हों।

पार्वती की शिव प्राप्ति की इच्छा

जैसे-जैसे पार्वती बड़ी हुईं, उनके मन में शिव के प्रति प्रेम और भक्ति बढ़ने लगी। एक दिन, ऋषि नारद उनके महल में आए और पार्वती को बताया कि वह पूर्व जन्म में सती थीं, जो शिव की पत्नी थीं। यह जानकर, पार्वती ने शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय किया।

हिमालय राजा और मेना ने पार्वती को समझाया कि शिव एक योगी हैं, उन्हें सांसारिक जीवन में कोई रुचि नहीं है, और वे अशुभ नहीं हैं। लेकिन पार्वती ने अपना निर्णय नहीं बदला। वह अपने माता-पिता की आज्ञा लेकर हिमालय की गुफा में शिव की आराधना करने के लिए चली गईं।

पार्वती की कठोर तपस्या

पार्वती ने कठोर तपस्या आरंभ की। उन्होंने भोजन त्याग दिया और केवल फल और पत्तियों पर जीवित रहने लगीं। धीरे-धीरे, उन्होंने वह भी छोड़ दिया और केवल जल पर निर्वाह करने लगीं। अंततः, उन्होंने जल भी त्याग दिया और "अपर्णा" (बिना पत्ते वाली) कहलाईं। उनकी तपस्या इतनी कठोर थी कि पांचों तत्व भी विचलित हो गए।

शिव द्वारा पार्वती की परीक्षा

पार्वती की तपस्या से प्रभावित होकर, शिव ने उनकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। वे एक बूढ़े ब्राह्मण के रूप में पार्वती के पास आए और शिव की आलोचना करने लगे। उन्होंने कहा, "हे युवती, तुम इतनी सुंदर हो, लेकिन शिव को पति के रूप में क्यों चाहती हो? वह तो भस्म से लिपटे रहते हैं, श्मशान में रहते हैं, साँपों को पहनते हैं, और उनके पास कोई भौतिक संपत्ति नहीं है।"

इस पर पार्वती क्रोधित हो गईं और उस ब्राह्मण को फटकारने लगीं। उन्होंने कहा, "मैं शिव को उनके रूप या संपत्ति के लिए नहीं, बल्कि उनकी आत्मा के लिए चाहती हूँ। आप उनकी निंदा कर रहे हैं, इसलिए मैं आपका कोई संबंध नहीं रखना चाहती।" पार्वती के इस उत्तर से प्रसन्न होकर, शिव ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और पार्वती की शिव के प्रति प्रेम और भक्ति की परीक्षा सफल हुई।

कामदेव और उनका दहन

देवताओं को अभी भी शिव के विवाह के प्रति आश्वस्त नहीं थे, क्योंकि उन्हें भय था कि शिव अपने ध्यान से बाहर नहीं आएंगे। इसलिए, उन्होंने कामदेव (प्रेम के देवता) को भेजा ताकि वह शिव के हृदय में प्रेम का बीज बो सके।

कामदेव ने शिव पर अपने पुष्प बाण चलाए, जिससे शिव का ध्यान भंग हुआ। शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला और कामदेव को भस्म कर दिया, जिससे रति (कामदेव की पत्नी) विधवा हो गई। बाद में, शिव ने रति को वरदान दिया कि उनके पति अदृश्य रूप में जीवित रहेंगे और अंतरात्मा के माध्यम से अनुभव किए जा सकेंगे।

शिव का स्वीकृति और विवाह की तैयारियां

अंततः, शिव पार्वती की अटूट भक्ति और प्रेम से प्रभावित हुए और उन्होंने विवाह के लिए सहमति दे दी। सभी देवता इस सुखद समाचार से प्रसन्न हुए। ब्रह्मा ने स्वयं पार्वती के पिता हिमालय राजा के पास शिव का विवाह प्रस्ताव लेकर गए।

हिमालय राजा और मेना को यह प्रस्ताव स्वीकार करने में प्रसन्नता हुई, और विवाह की तैयारियां आरंभ हो गईं। काशी को विवाह स्थल के रूप में चुना गया, और सभी देवताओं, ऋषियों, और प्राणियों को आमंत्रित किया गया।

शिव की बारात

विवाह के दिन, शिव अपने गणों के साथ हिमालय पर्वत पर पहुंचे। उनकी बारात अद्भुत थी, जिसमें गणेश, कार्तिकेय, नंदी, भूत, प्रेत, पिशाच, और सभी प्रकार के अजीब प्राणी शामिल थे। वे सभी अपने-अपने तरीके से नृत्य कर रहे थे और अजीब ध्वनियाँ निकाल रहे थे।

जब यह अजीब बारात हिमालय राजा के महल पहुंची, तो मेना इसे देखकर चिंतित हो गईं। उन्होंने अपने पति को आरोप लगाया कि वे अपनी बेटी का विवाह एक अजीब व्यक्ति से कर रहे हैं। लेकिन नारद ने उन्हें समझाया कि यह शिव की लीला है, और उन्हें इसके बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए।

विवाह समारोह शुरू हुआ, और पार्वती के पिता हिमालय राजा ने विधिवत कन्यादान किया। शिव और पार्वती ने अग्नि के चारों ओर सात फेरे लिए और एक-दूसरे को पति-पत्नी के रूप में स्वीकार किया।

विष्णु की भूमिका

विवाह समारोह में भगवान विष्णु ने पार्वती के भाई का स्थान लिया, जो हिंदू विवाह में एक महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने पार्वती की कलाई पर रक्षा सूत्र (राखी) बांधी और उन्हें शिव के साथ विवाह के लिए तैयार किया।

विवाह के बाद, शिव और पार्वती कैलाश पर्वत पर गए, जहां उन्होंने अपना घर बनाया और खुशी से रहने लगे। पार्वती ने हिमालय की सुंदरता और शांति को अपने साथ लाया, जबकि शिव ने अपनी गहरी आध्यात्मिकता और शक्ति का योगदान दिया।

विवाह का महत्व और प्रतीकात्मकता

शिव और पार्वती का विवाह हिन्दू धर्म में पुरुष और स्त्री के आदर्श मिलन का प्रतीक है। यह विवाह शिव के तामसिक गुणों (विनाश और त्याग) और पार्वती के सात्विक गुणों (सृजन और समर्पण) के बीच एक आदर्श संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है।

इस विवाह से पुरुष और स्त्री की एकता की शक्ति का भी पता चलता है। शिव और पार्वती, एक साथ मिलकर, अर्धनारीश्वर के रूप में पूर्णता का प्रतीक बनते हैं - एक ऐसा रूप जिसमें शरीर का आधा भाग पुरुष और आधा भाग स्त्री है।

"शिव और पार्वती का विवाह हमें सिखाता है कि सच्चा प्रेम और भक्ति सभी बाधाओं को पार कर सकते हैं, और हमें आध्यात्मिक पूर्णता की ओर ले जा सकते हैं। यह विवाह प्रेम, समर्पण, त्याग और एकता का प्रतीक है।"

संतानें: गणेश और कार्तिकेय

शिव और पार्वती के विवाह से दो पुत्र हुए - गणेश और कार्तिकेय (या स्कंद)। गणेश, जिन्हें बुद्धि और सफलता का देवता माना जाता है, को शिव ने पहले मार दिया था, लेकिन बाद में पार्वती की इच्छा पर हाथी के सिर के साथ पुनर्जीवित किया गया। कार्तिकेय, जिन्हें युद्ध का देवता माना जाता है, ने तारकासुर का वध किया और देवताओं को उसके अत्याचार से मुक्त किया।

इस प्रकार, शिव और पार्वती के विवाह ने न केवल दिव्य प्रेम की पुनःप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि हिंदू धर्म में दो महत्वपूर्ण देवताओं के जन्म का भी कारण बना, जिन्होंने भक्तों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

सांस्कृतिक महत्व

शिव और पार्वती के विवाह को हिंदू धर्म में महाशिवरात्रि के दिन मनाया जाता है। यह त्योहार प्रतिवर्ष फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। इस दिन भक्त उपवास रखते हैं और रात भर जागरण करते हैं।

भारत के कई मंदिरों में, विशेष रूप से खजुराहो और एलोरा के मंदिरों में, शिव-पार्वती विवाह के दृश्य को मूर्तियों और चित्रों के माध्यम से दर्शाया गया है। ये कलाकृतियाँ न केवल धार्मिक महत्व रखती हैं, बल्कि भारतीय कला और स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण भी हैं।

शिव-पार्वती विवाह की कथा को अक्सर नृत्य-नाटकों, गीतों, और कविताओं के माध्यम से भी प्रस्तुत किया जाता है। यह कथा भारतीय लोक कला और संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गई है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है।